Saturday, December 10, 2011

Palwal Chunav




दिल्ली का पूरा इतिहास

नई दिल्ली। महाभारत...एक महाकाव्य जो इंसानी दिलो-दिमाग की बुनावट का ऐसा दस्तावेज है जिस पर वक्त का पानी बेअसर साबित हुआ है। इतिहास की कसौटी पर महाभारत की कथा, खरी नहीं उतरती, ना इतिहासकार ठीक-ठीक वो वक्त ही मुकर्रर कर पाए हैं जब ये कथा लिखी गई, लेकिन लोक विश्वास इसे इतिहास ही मानता है। इस विश्वास के मुताबिक ईसा से करीब 800 साल पहले का वाकया है हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र ने अपने भतीजों यानी पांडवों से संघर्ष टालने के लिए उन्हें पांच गांव दे दिए। पांडवों ने इनमें से एक गांव को इंद्रप्रस्थ नाम देकर अपनी राजधानी बनाया लेकिन कौरव उत्तराधिकारी दुर्योधन को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। नतीजे में तमाम छल-प्रपंचों का सिलसिला शुरू हुआ और आखिरकार कुरुक्षेत्र के मैदान में 18 दिनों का विकट युद्ध हुआ। ऐसा युद्ध, जिसने पांडवों को सुई की नोक बराबर जमीन भी ना देने पर अड़े कौरवों का अंत कर डाला।


कौरवों का अंत हुआ लेकिन अंत नहीं हुआ तो हवस का, बेजा ख्वाहिशों का, ताकत और हुकूमत के नशे का। हमेशा ही, सत्ता के सिंहासन को इंसानी खून से धोया जाता रहा। इस हकीकत को बेहद करीब से महसूस करने वाले शहर का नाम है दिल्ली। भारत की राजधानी दिल्ली...बस-बस के उजड़ना और उजड़-उजड़कर बसना ही इसका इतिहास है। इंद्रप्रस्थ भी इसी किस्से का एक सिरा है। कहा जाता है कि पुराने किले के पास इंद्रपत नाम का एक गांव 19वीं सदी में भी था, जिसे सहज ही पांडवों के इंद्रप्रस्थ से जोड़ा जाता था।


पढ़ें-दिल्ली का पूरा इतिहास, देखें-मैं दिल्ली हूं!



बहरहाल, लिखित इतिहास में दिल्ली की चर्चा पहली बार तब अहम होकर उभरती है जब 1180 में इसे चौहानों ने जीता। चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय ने यहां तोमर राजा अनंगपाल के बनवाए लालकोट को किला राय पिथौरा में बदल दिया। ये दिल्ली का पहला शहर माना जाता है। पृथ्वीराज, अजमेर और दिल्ली के बीच के क्षेत्र पर शासन करते थे। अपनी बहादुरी के लिए मशहूर पृथ्वीराज ने अफगानिस्तान के गौर से आए हमलावर मोहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित किया। लेकिन 1192 में हुए तराइन के युद्ध में गौरी को आखिरकार जीत मिल गई। पृथ्वीराज वीरगति को प्राप्त हुए। हालांकि चारणकवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में इस हार का दर्द कम करने के लिए लिखा कि गौरी पृथ्वीराज को अंधा बनाकर अपनी राजधानी ले गया। शब्दभेदी बाण चलाने में माहिर पृथ्वीराज ने एक दिन शहाबुद्दीन गौरी का काम तमाम कर दिया। चंदबरदाई खुद भी इस कथा का एक पात्र है।

बहरहाल, रासो के रस में बदला ले लेने का सुख चाहे हो, हकीकत की तासीर नहीं है। गौरी की जीत के साथ भारत में तुर्कों का प्रवेश हो गया। उनकी जीत नई युद्ध तकनीक और बेहतर हथियारों की बदौलत हुई। तुर्क शासकों ने प्रशिक्षित गुलामों की ऐसी फौज खड़ी की थी, जो सिर्फ उनके लिए जीती-मरती थी। गंगा-यमुना के दोआब की उपजाऊ धरती की कशिश उन्हें खींच रही थी।


शहाबुद्दीन गौरी ने हिंदुस्तान में मिली जीत को संभालने की जिम्मेदारी अपने विश्वासपात्र गुलाम सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपी, जिसने 1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। लगभग आठ सौ साल से दिल्ली की शान बनी हुई कुतुब मीनार ऐबक के इरादों और हिंदुस्तान में आए उस ऐतिहासिक बदलाव की गवाह है। कुतुबमीनार और कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के साथ उसने कुतुब महरौली बसाया जिसे दिल्ली का दूसरा शहर कहा जाता है। लेकिन सिर्फ चार साल बाद 1210 में कुतुबुद्दीन ऐबक की घोड़े से गिरकर मौत हो गई। ऐबक के बाद उसका दामाद इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बना जिसने 26 साल तक शासन करते हुए सल्तनत की बुनियाद को मजबूत किया। इल्तुतमिश अपने बेटों को नालायक समझता था। ऐसे में उसकी नजर अपनी काबिल बेटी रजिया पर गई।


दिल्ली एक क्रांतिकारी घटना की गवाह बनी। दुनिया में पहली बार कोई महिला इतने बड़े साम्राज्य की कमान संभालने जा रही थी। इल्तुतमिश की मौत के बाद उसकी ख्वाहिश के मुताबिक, उसकी बेटी रजिया ने महिलाओं के कपड़े छोड़, चोगा-टोपी पहनी और हाथी पर सवार हो गई। इस शुभ घड़ी पर दिल्ली झूम उठी। रजिया सुल्तान में वो सभी गुण थे जो उस वक्त के सुल्तानों में जरूरी माने जाते थे। लेकिन तुर्क सरदारों के मुकाबले गैरतुर्क और हिंदुस्तानी सामंतों की एक वफादार टोली तैयार करने की कोशिश उस पर भारी पड़ी। तुर्क अमीरों ने खुली बगावत की जो उसकी जान लेकर थमी। बहरहाल, रजिया का सिर्फ साढ़े तीन साल का शासन, इतिहास बना गया।



दिल्ली का सीरी फोर्ट स्टेडियम सल्तनत काल में बसाए गए तीसरे शहर की याद है। इसे बसाने वाले का नाम था अलाउद्दीन खिलजी। 1296 में अपने चाचा और खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी की कड़ा मानिकपुर में हत्या करके उसने सत्ता हथिया ली थी। उसके कारनामों से डरी हुई दिल्ली उसका इंतजार कर रही थी। फिर एक बरसाती रात सोना लुटाते हुए अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ। लेकिन अलाउद्दीन एक कुशल शासक साबित हुआ। उन दिनों दिल्ली के बाजारों में ज्यादा दाम वसूलने वालों की खैर नहीं थी। यही नहीं, वो पहला सुल्तान था, जिसने स्थायी सेना का बंदोबस्त किया। तब की दिल्ली पर मंगोलों के हमले का साया मंडराता रहता था। लेकिन सीरी के मैदान में अलाउद्दीन ने मंगोलों को इस बुरी तरह हराया कि उनका आतंक खत्म हो गया। बाद में इसी मैदान को दीवार से घेरकर उसने सीरी शहर बसाया ताकि दुश्मनों का हमला हो तो सिर्फ शासकवर्ग की नहीं, पूरी जनता की हिफाजत हो सके। सीरी स्टेडियम के पास दीवारों के खंडहर अब भी देखे जा सकते हैं। वैसे, लोगों की याद में अलाउद्दीन से जुड़ा सबसे अहम किस्सा है चित्तौड़ की रानी पद्मावती की पाने की उसकी कोशिश। हालांकि ये किस्सा इतिहास नहीं, अवधी महाकाव्य पद्मावत की वजह से आम हुआ, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन की मौत के काफी बाद लिखा था।


तुगलकाबाद किले की विशाल दीवार 1320 ई. में दिल्ली के तख्त पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाले गयासुद्दीन तुगलक के इरादों की गवाह हैं। इसे दिल्ली का चौथा शहर कहते हैं। इस समय तक तुर्कों के भारत आगमन के लगभग सवा सौ साल बीत चुके थे। विदेशी और स्थानीय आबादी के बीच घुलने-मिलने का सिलसिला तेज हो गया था। इसी समय दिल्ली सूफी संतों का केंद्र भी बन रही थी। मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, इस दौरान ऐसे मशहूर हुए कि सुल्तान की चमक भी फीकी पड़ गई। तुगलकाबाद आज वक्त की धूल में खो गया, लेकिन ख्वाजा के दर पर सुकून का चश्मा बदस्तूर बह रहा है। ख्वाजा का दर दिल्ली की तहजीब का मरकज आज भी है। यहां के हर जर्रे में देहली की खुशबू बसी हुई है।



हजरत निजामुद्दीन के शिष्य अमीर खुसरो की ना जाने कितनी रचनाओं ने दिल्ली में तहजीब का एक नया रंग भरा था। अमीर खुसरो का असल नाम अबुल हसन था। उन्होंने पांच सुल्तानों की सेवा की थी लेकिन तलवार से ज्यादा कलम के लिए जाने गए। अरबी-फारसी के रंग को ब्रजभाषा और अवधी जैसी लोकभाषाओं से मिलाकर उन्होंने हिंदवी की शुरुआत की। जो आगे चलकर उर्दू कहलाई और फिर इसी ने खड़ी बोली हिंदी का रूप धरा। तबला और सितार का आविष्कार ही नहीं किया, कई रागों की रचना भी की। अपनी कविताई के लिए। इसका ऐसा डंका बजा कि उन्हें दुनिया भर में तूतिए हिंद कहा जाने लगा। खुसरो की पहेलियां दिल्ली से निकलकर गांव-गांव में खेल बनकर छा गईं। ये सिलसिला आज भी जारी है।


गयासुद्दीन तुगलक के बाद उसका बेटा मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बना। उसने सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का अजब फैसला किया। कुछ विद्वान इसे उसकी दूरंदेशी बताते हैं तो कुछ के मुताबिक ये उसकी सनक भर थी। बहरहाल जल्द ही उसे गलती का अहसास हुआ और राजधानी वापस दिल्ली ले आई गई। लेकिन दिल्ली की सूरत में चार चांद लगाया मुहम्मद बिन तुगलक के बाद गद्दी पर बैठे, उसके चाचा सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने। आज फिरोजशाह कोटला का नाम आते ही लोगों के जेहन में क्रिकेट मैच घूमने लगता है, लेकिन कोटला के खंडहर बताते हैं कि दिल्ली का पांचवां शहर यानी फिरोजाबाद किस शान का नमूना था। इससे पहले सारे शहर अरावली की पहाड़ियों पर बसाए गए थे। वहां के निवासियों को बड़े-बड़े हौजों में इकट्ठा किए गए पानी पर निर्भर रहना पड़ता था। पर आबादी बढ़ रही थी और पानी कम था। ऐसे में फिरोजशाह ने यमुना के किनारे 18 गांवों को मिलाकर इस शहर फिरोजबादा की तामीर की। इसमें 30 महल, दो सौ मुसाफिरखाने, चार अस्पताल, 10 हम्माम, 150 कुएं और 1200 बाग थे। नई-नई इमारतों के शौकीन फिरोजशाह ने 1368 में बिजली गिरने से टूटी कुतुब मीनार की दो ऊपरी मंजिलों को भी दुरुस्त कराया। यही नहीं, उसने पांच नहरों का भी निर्माण कराया जिसमें सबसे लंबी नहर डेढ़ सौ मील लंबी थी। लेकिन 1388 में फिरोजशाह की मौत के साथ ही इस शान-शौकत पर बुरी नजर लग गई।


1398 में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला कर दिया। जाहिर है, इरादा लूटपाट था, जिसे हमेशा की तरह एक धार्मिक जामा पहनाया गया। उसका आरोप था कि दिल्ली का सुल्तान हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार करता है, जो इस्लाम के खिलाफ है। दिलचस्प बात ये है कि लगभग डेढ़ सौ साल बाद उसके वंशजों यानी मुगलों ने भारत में अपने राज की मजबूती के लिए ठीक यही नीति अपनाई।


तैमूर के सैनिकों ने तीन दिन-तीन रात तक लगातार दिल्ली में लूटपाट की। फिरोजशाह के शानदार शहर को खंडहर बना दिया गया। हजारों लोगों की गर्दनें उड़ा दी गईं। दिल्ली का हर कूचा, हर गली इंसानी खून से नहा गई। तैमूर के लौटने के बाद थोड़े समय के लिए सैयद वंश के हाथ में सत्ता रही और फिर लोदियों का वक्त आया। अफगानी नेतृत्व वाले इस पहले शासक परिवार के बहलोल, सिकंदर और इब्राहिम लोदी दिल्ली का गौरव ना लौटा सके।


दिल्ली सल्तनत का सूरज डूब रहा था। फरगाना के अपने पुश्तैनी इलाके से दरबदर किया गया जहीरुद्दीन बाबर एक घर की तलाश में हिंदुस्तान की ओर बढ़ा चला आ रहा था। पानीपत के मैदान में हिंदुस्तान की तारीख करवट ले रही थी। दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की लंबी-चौड़ी फौज को बाबर की एक छोटी सी सेना ने हरा कर इतिहास रच दिया। फरगाना और समरकंद से भगाया गया जहीरुद्दीन बाबर दूध और शहद की जमीन के नाम से मशहूर हिंदुस्तान में अपने लिए एक स्थायी ठिकाना चाहता था। इस ऐतिहासिक जंग ने उसका ख्वाब पूरा किया।


इब्राहिम लोदी पहला सुल्तान था, जो युद्धक्षेत्र में मारा गया। 1192 में तराइन के मैदान में जिस दिल्ली सल्तनत का जन्म हुआ था उसने पानीपत के मैदान में अंतिम सांस ली। लेकिन सल्तनत के साथ दिल्ली का सितारा भी डूबता दिखाई दिया। ये स्वाभाविक था कि बाबर भी दिल्ली को अपनी राजधानी बनाता, लेकिन वो दिल्ली सुल्तान नहीं, हिंदुस्तान का पहला मुगल बादशाह बनना चाहता था। इसलिए सल्तनत की छाया से बाहर जाते हुए उसने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन सिर्फ चार साल बाद 1930 में बाबर की मौत हो गई। बहरहाल, उसके उत्तराधिकारी हुमायूं को दिल्ली का महत्व समझ में आया और उसने यहां एक शहर बसाया। यमुना किनारे बसे इस शहर को आज पुराने किले के अवशेषों से पहचाना जाता है, जिसे हुमायूं ने दीनपनाह नाम दिया। लेकिन हुमायूं काफी बदकिस्मत निकला।


इब्राहिम लोदी की हार से बौखलाए अफगान बिहार के फरीद खां उर्फ शेर खां के नेतृत्व में एकजुट हो रहे थे। उसने 1539 में हुमायूं को चौसा के मैदान में बुरी तरह पराजित किया। फिर 1540 में कन्नौज के पास उसने मुगलों को निर्णायक शिकस्त दी और शेरशाह बनकर दिल्ली के तख्त पर जा बैठा। शेरशाह ने दिल्ली में हुमायूं के दीन पनाह में कुछ तरमीम करके उसे शेरगढ़ बना दिया। शेरशाह बेहद कुशल शासक साबित हुआ। उसने बंगाल को पेशावर से जोड़ने वाली ऐसी सड़क बनवाई जो आज भी जीटी रोड के नाम से जानी जाती है। उसका चलाया रुपया आज भी भारत की मुद्रा है।


किस्मत ने शेरशाह का भी साथ नहीं दिया। 1545 में एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई। उसके उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए। दर-बदर भटक रहे हुमायूं को फिर मौका मिला और दस साल बाद 1555 में हुमायूं को फिर से दिल्ली पर कब्जा करने का मौका मिल गया। शेरगढ़ फिर दीनपनाह हो गया। लेकिन महज सात महीने बाद पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मौत हो गई। दिल्ली में मौजूद उसका मकबरा, आज भी उस बदकिस्मत बादशाह की याद दिलाता है। जाहिर है, दिल्ली मुगलों को रास नहीं आ रही थी। हुमायूं के बेटे और मुगल वंश के सबसे मशहूर शासक साबित हुए अकबर ने अपनी राजधानी आगरा बनाई। उसके बेटे जहांगीर और पोते शाहजहां के समय भी आगरा ही शासन का केंद्र रहा। शाहजहां खासतौर पर शानदार इमारतें बनवाने के लिए मशहूर था। आगरा में ताजमहल जैसी बेमिसाल इमारत की वजह से वो इतिहास में अमर है। लेकिन आगरा उसकी ख्वाहिशों के लिहाज से छोटा पड़ रहा था।


शाहजहां ने दिल्ली का रुख किया और यमुना किनारे शाहजहांनाबाद की नींव रखी जो दिल्ली का सातवां शहर कहा जाता है। शाहजहांनाबाद का लाल किला दस साल में बनकर तैयार हुआ। वहां का दीवाने आम, दीवाने खास और बाग-बगीचे मुगलों की शान का डंका बजाते थे। शाहजहां के बैठने के लिए एक तख्तेताऊस यानी मयूर सिंहासन बना जिसमें 46 लाख रुपये के जवाहरात लगे थे। जामा मस्जिद की खूबसूरती, 5000 संगतराशों की छह साल तक की गई मेहनत का नतीजा है। चांदनी चौक जैसे बाजार हों, या बस्तियां, इस शहर में वो सबकुछ था जिसके बारे में सिर्फ कल्पना की जा सकती थी।


शाहजहां का बेटा औरंगजेब यूं तो काबिल शासक साबित हुआ, लेकिन उसके दौर में ही मुगल साम्राज्य अपने बोझ से चरमराने लगा था। 1707 में उसकी मौत के बाद तख्त पर बैठने वाले दिल्ली की शान को बरकरार नहीं रख पाए। सिर्फ 32 साल बाद ईरान के शासक नादिरशाह ने दिल्ली की शान को खून में डुबो दिया। 1739 में बादशाह मुहम्मदशाह के वक्त हुए इस हमले में दिल्ली के 30000 नागरिक मारे गए। नादिर शाह अकूत दौलत के साथ तख्त-ए-ताऊस और कोहिनूर हीरा भी अपने साथ ले गया। दिल्ली की हर आंख में आंसू था और हर गली में खून की चादर बिछी थी।


नादिरशाह के जाने के बाद दिल्ली और मुगल वंश का नूर उतरने लगा। बादशाह सामंतों के हाथ की कठपुतली साबित होने लगे। इस बीच सियासत में तिजारत का बोलबाला बढ़ रहा था। सात समंदर पार से आए गोरे व्यापारियों की काली नजर अब तक हिंदुस्तान पर बुरी तरह गड़ चुकी थी। वे व्यापार नहीं, खुली लूट चाहते थे।


ये व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ल में हिंदुस्तान में दाखिल हुए थे। 1615 में इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम की ओर से सर टामस रो बतौर राजदूत जहांगीर के दरबार में हाजिर हुआ था। उसने घुटनों के बल बैठकर अंग्रेजी कंपनी को सूरत में फैक्ट्री खोलने की इजाजत मांगी थी। तब उस दरबार में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि उसके वंशज, एक दिन जहांगीर के वंशजों को ना सिर्फ घुटनों पर झुकाएंगे बल्कि उनका गला भी काटेंगे।


मुगल वंश की कमजोर पड़ती चमक के बावजूद भारत का पारंपरिक व्यापार कमजोर नहीं पड़ा था। दुनिया के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 30 फीसदी था। अंग्रेज व्यापारी मौका पाकर इस समृद्धिचक्र को उलटना चाहते थे। लार्ड क्लाइव के षडयंत्रों और विश्वासघात की नीति ने उन्हें कामयाबी दिलाई। उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा को रोकने की पहली गंभीर कोशिश की बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने। लेकिन मीर जाफर और सेठ अमीचंद जैसे गद्दारों ने गुपचुप अंग्रेजों का साथ दिया। नतीजा 1757 में प्लासी के मैदान में अंग्रेजी सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया।


सिर्फ सात साल बाद यही कहानी बक्सर के मैदान में दोहराई गई। मायूस दिल्ली ने देखा कि बादशाह शाहआलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के मीर कासिम की संयुक्त सेना बक्सर के मैदान में पराजित हो गई। 1764 की इस लड़ाई ने भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद रख दी। पहले बंगाल का राजकाज उनके हाथ आया और कलकत्ता उनके इरादों की राजधानी बनी। इसके बाद धीरे-धीरे वे देश के तमाम दूसरे इलाकों में भी दखल करते चले गए।


19वीं सदी के आगाज के साथ दिल्ली का तख्त चरमरा गया था। कहावत मशहूर थी-शहंशाह ए आलम, ला दिल्ली अज पालम..यानी शंहशाह की हद दिल्ली के लालकिले से लेकर पालम गांव तक सिमट गई है। 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली को भी दखल कर लिया। 28 सितंबर 1837 को बादशाह अकबरशाह की मौत के बाद उनके बेटे बहादुर शाह जफर को बादशाह बनाया गया। लेकिन इस बादशाहत का असर लाल किले की दीवारों के अंदर तक ही था। दिल्ली पर अंग्रेज रेजीडेंट की हुकूमत चलती थी और बादशाह अपने खर्च के लिए कंपनी का मोहताज था। बहादुर शाह जफर आला दर्जे के शायर थे और उनकी कलम से उनका ही नहीं, जमाने का दर्द टपकता था। वे मुगल वंश और हिंदुस्तान की किस्मत पर जो कुछ लिख रहे थे उसे सुनकर किले के लाल पत्थरों पर आंसुओं की लकीर पड़ जाती थी।


बहरहाल दिल्ली शहर के रंग-ढंग में पुरानी आब बाकी थी। बाजारों में चमक बरकरार थी और जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जिंदगी के मेले अब भी लगते थे। गालिब जैसे महान शायर दिल्ली की गहराई और ऊंचाई की नई पहचान बनकर उभरे थे। लेकिन 1857 की गर्मियां ऐसा अंधड़ लाईं कि अंग्रेजी राज कांप उठा। पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज उठा। यूं तो ये कुछ राजे-रजवाड़ों का विद्रोह लगता था, लेकिन इसमें बड़ी तादाद में आम लोग, किसान, मजदूर, दस्तकार शामिल थे। हिंदू-मुस्लिम का फर्क मिट गया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हों, या बिठूर में बैठे नानासाहब पेशवा या फिर अवध की बेगम हजरत महल सबने दिल्ली के बादशाह का परचम उठा लिया था। रोटी और कमल को प्रतीक बनाकर चुपचाप जो तैयारियां चल रही थीं, उसे यूं तो मई में रंग दिखाना था। लेकिन चर्बी वाले कारतूस के मुद्दे पर बंगाल के बैरकपुर में सिपाही मंगल पांडेय ने अप्रैल में ही विद्रोह की चिंगारी भड़का दी। ये चिंगारी शोला बनकर जल्दी ही मेरठ जा पहुंची। हिंदुस्तानी सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और हर तरफ से दिल्ली की ओर कूच कर दिया। वे बहादुरशाह जफर जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।

शुरुआती हिचक के बाद बहादुरशाह जफर ने विद्रोह की कमान अपने हाथ में ले ली। वे हिंदुस्तान की आजादी का चेहरा बन गए थे। उनकी कलम से अब बारूद निकल रही थी। उन्होंने लिखा-गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।


1857 की क्रांति ने अंग्रेजों की रूह कंपा दी। लेकिन अफसोस, पटियाला, कश्मीर, जींद, नाभा और ग्वालियर जैसी रियासतों की सैनिक मदद से अंग्रेजों ने इसका दमन कर दिया। बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया गया। उनके दो बेटों का कत्ल कर दिया गया और उनके कटे सिर तोहफे बतौर उन्हें पेश किए गए। इस दौरान दिल्ली में अंग्रेजों ने जैसी कत्लोगारत मचाई, उसने नादिरशाही जुल्म को फीका कर दिया। लाल किले के अंदर की तमाम इमारतों और आसपास की बस्तियों को जमींदोज कर दिया गया। उस समय दिल्ली की आबादी लगभग डेढ़ लाख थी। इस आबादी ने हर जुल्म सहा, लेकिन गली-गली अंग्रेजों से मोर्चा लिया।



मशहूर शायर मिर्जा गालिब, इस कहर के भुक्तभोगी थी। बल्लीमारान की जिस गली में गालिब रहते थे, तबाही उसके मुहाने पर खड़ी थी। उन्होंने दिल्ली की तबाही का मंजर एक खत में कुछ यूं बयान किया-मेरा हाल खुदा और मेरे अलावा कोई नहीं जानता है। कहने को तो हर कोई ऐसा कह सकता है, लेकिन मैं अली को गवाह मानते हुए कह सकता हूं कि मरने वालों के दुख और जिंदा बचे लोगों के बिछोह में मुझे पूरी दुनिया अंधेरी नजर आ रही है। जो दौलतमंद और खाते-पीते लोग थे, उनके बीवी-बच्चे भीख मांगते फिरें और मैं देखूं, इस मुसीबत की ताब लाने का जिगर चाहिए। हाय इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूंगा तो रोने वाला कोई भी न होगा।


मिर्जा गालिब दिल्ली के हाल से बुरी तरह टूट गए थे। इसके बाद वो करीब 12 बरस जिंदा रहे, लेकिन उनकी कांपती कलम कभी-कभार ही कुछ कह पाई। फिर भी जो लिखा, उसमें दिल्ली और उसके जरिये पूरे हिंदुस्तान का दर्द शामिल था। 1857 ने बता दिया कि देश की अवाम के दिल में दिल्ली के बादशाह की क्या जगह है। लिहाजा बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम जीनत महल को रंगून भेज दिया गया। 7 नवंबर 1862 को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं दफना दिया गया। कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए दो गज जमीन भी ना मिली कूए यार में।

Monday, November 7, 2011

पलवल जिले में धोबी समाज का समुदाय भवन (धोबी धर्मशाला) का उदघाटन समारोह

आप सभी को ये  जानके अति हर्ष  होगा के हरयाणा राज्य के पलवल जिले में धोबी समाज का अब अपना अस्तित्व बढ़ने लगा है,,,,,,,,,,
इसी पहल के तहत अब पलवल जिले में धोबी समाज का समुदाय भवन (धोबी धर्मशाला) का उदघाटन होने जा रहा है,
ये उदघाटन समारोह २० नवम्बर, २०११ को होने जा रहा है,

इसका शुभारम्भ पलवल जिले के पूर्व मंत्री श्री कारन दलाल के कर कमलो द्वारा होगा.

इस समारोह की शोभा बढाने हरियाणा धोबी महासभा के प्रधान "श्री ओमप्रकाश अखेरिया" और अखिल भारतीय धोबी महासंघ एवं हरियाणा धोबी महासभा के महासचिव "श्री अमित खत्री"  भी पधार रहे हैं

व इनके अलावा हरियाणा राज्य की धोबी समाज की बड़ी -बड़ी हस्तियाँ  इस समारोह में शामिल हो रहीं हैं.
इस समारोह में हरयाणा राज्य के धोबी समाज के सभी लोग आमंत्रित हैं.

मेरा आप सभी धोबी भाइयों और बहनों और भाइयों से अनुरोध है के वो इस कार्यक्रम में आयें और इस समारोह  की शोभा बाधाएं!
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता पलवल जिले के प्रधान "श्री वीरसिंह अखेरिया " और उनके दल के द्वारा की जा रही है..........


अधिक जानकारी के लिए निम्नलिखित नंबरों पर संपर्क करें

देवव्रत अखेरिया - 9013479599, 9802417194

Tuesday, October 25, 2011

नर्क चतुर्दशी (छोटी दीवाली )

नर्क चतुर्दशी

 
नर्क चतुर्दशी
नर्क चतुर्दशी
कृष्ण और सत्यभामा नरकासुर मर्दन करते हुए- चित्रांकन
आधिकारिक नामनर्क चतुर्दशी व्रत
अनुयायीहिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी
तिथिकार्तिक कृष्ण चतुर्दशी
यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है। विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। दीपावली को एक दिन का पर्व कहना न्योचित नहीं होगा। इस पर्व का जो महत्व और महात्मय है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण पर्व व हिन्दुओं का त्यौहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है जैसे मंत्री समुदाय के बीच राजा। दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली फिर दीपावली और गोधन पूजा , भाईदूज ।

 

 संदर्भ

नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारत सजायी जाती है।
इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समझ यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। पुण्यात्मा राज की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है।
दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे वर्ष का और समय दे दे। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है। ऋषि बोले हे राजन् आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें।
राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है। स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपरोक्त कारणों से नरक चतुर्दशी, रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से जाना जाता है

कथा

पौराणिक कथा है कि इसी दिन कृष्ण ने एक दैत्य नरकासुर का संहार किया था। सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से निपट कर यमराज का तर्पण करके तीन अंजलि जल अर्पित करने का विधान है। संध्या के समय दीपक जलाए जाते हैं।

Monday, October 24, 2011

धनतेरस पूजा और उसका महत्व

धनतेरस


धनतेरस
धनतेरस
धनतेरस व्रत
आधिकारिक नामधनतेरस व्रत
अनुयायीहिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी
तिथिकार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी
जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है । धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

 प्रथा

धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें।

कथा

धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राज इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।
विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है । यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।

 धन्वंतरि

धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हें परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके।
एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।
धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं।

Thursday, October 20, 2011

अखिल भारतीय धोबी महासंघ

ब्लॉग पढने वाले सभी लोगो को मेरा नमस्कार !
ये ब्लॉग विशेष रूप से धोबी जाती के लिए है लेकिन कोई भी समुदाय के लोग इससे जुड़ सकते हैं.

अखिल भारतीय धोबी महासंघ

प्रधान - श्री श्याम रजाक
 सचिव - श्री अमित खत्री

मैं ये चाहता हूँ  की  देश में जितने भी धोबी जाती से सम्बन्ध रखते है वो सब इस ब्लॉग से जुड़े और अपनी बाते और समस्याएं पूरी दुनिया के सामने रख सकें .
उन सबकी समस्याएं ज़रूर दोर्र करी जायेंगी





और ज्यादा जानकारी के लिए नीचे दिए गए फ़ोन नंबरों  पे संपर्क करें.

अमित खत्री - 9813232752, 9896093106
देवव्रत अखेरिया - 9013479599, 980417194